Benefits of Terminalia chebula (हरड़) Harad
भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद (Ayurveda) में हरड़ (Terminalia chebula) or Harad का बहुत अधिक महत्व है। आयुर्वेद की अधिकतर औषधियों में हरड़ अवश्य डाली जाती है। विभिन्न भाषाओं में विभिन्न नामों से हरड़ को जाना जाता है।
संस्कृत में- अभया, पथ्या, शिवा, वय:स्था, अमृता, पूतना, चेतकी, रोहिणी, विजया, जीवन्ती, श्रेयसी, हैमवती इनके अतिरिक्त आयुर्वेद में इन नामों से भी जानते हैं, जैसे- सुधा, रुद्रप्रिया, भिषप्रिया, प्रमथा, पाचनी, जया, शक्र सृष्ठा, प्रभथ्या, देवी, हिमजा, गिरिजा आदि।
इसको हिन्दी में हरड़, हर्र हरर, हर्ड, हर्डे आदि, बंगला में- हरीतकी, मराठी में- हर्तकी, गुजराती में- हरड़े, हिमज, कनड़ अणिलेय प्रशसे, तेलुगू में करक्काप व करकचेट्ट, तमिल में- कडकै, अंग्रेजी में- मायरोवेलन्स तथा व्लेक माइरोवेलन्स, लेटिन में टर्मिनेलिया चेव्युला कहा जाता है।
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रासायनिक संगठन
हरड़ में लगभग तीस प्रतिशत ‘चेव्युलिक अम्ल’ नामक कसैला द्रव्य पाया जाता है तथा इसके अतिरिक्त टैनिक अम्ल 20 से 40 प्रतिशत और गैलिक अम्ल व राल आदि द्रव्य पाए जाते हैं।
Types Of Terminalia chebula (हरड़ की सात जातियां)
Different Types of Harad
पाश्चात्य विद्वानों में हरीतकी [हरड़] को केवल दो प्रकार का ही माना है, परन्तु
आयुर्वेद में हरड़ की सात जातियां मानी गई हैं। इनमें लक्षणों, आकारों व प्रयोग विधियों में अन्तर है।
विजया (Type of Terminalia chebula)
विन्ध्य पर्वत पर उत्पन्न होने वाली यह हरीतकी ‘लौकी’ की तरह गोल होती है। विजया हरीतकी सभी रोगों में प्रयोग में लाई जाती है।
रोहिणी (Type of Terminalia chebula)
इसके फल का आकार गोल होता है तथा यह व्रण पूरक अर्थात् घाव को भरने वाली होती है।
पूतना (Type of Terminalia chebula)
सिन्धु देश में उत्पन्न होने वाली यह हरीतकी पूतना नाम से जानी जाती है, इसके फल की गुठली बड़ी तथा आकार सूक्ष्म होता है। इसका प्रयोग प्रलेप के लिए करना चाहिए।
अमृता (Type of Terminalia chebula)
यह आकार में गूदेदार [मांसल] माना गया है। होती है। इस हरीतकी को शोधन कर्म में हितकर
अभया (Type of Terminalia chebula)
यह भी चम्पारण में मिलती हैं तथा पांच रेखाओं से युक्त होती है। अभया को नेत्र रोगों में प्रयोग किया जाता है।
जीवन्ती (Type of Terminalia chebula)
सोरठ देश में मिलने वाली यह जीवन्ती हरीतकी सोने के समान रंग वाली होती है तथा अनेक रोगों का नाश करने वाली मानी जाती है।
चेतकी (Type of Terminalia chebula)
चेतकी जाति की हरीतकी हिमालय पर्वत पर पाई जाती है तथा आकार में तीन रेखाओं वाली होती है। यह चूर्ण के लिए उत्तम मानी गई है। यह शुक्ल व कृष्ण दो प्रकार की होती है। शुक्ल चेतकी छह अंगुल तथा कृष्ण वाली एक अंगुली लम्बी होती है।
हरड़ की इन सातों जातियों में ‘विजया’ नामक हरीतकी [हरड़] को प्रधान व उत्तम माना है, क्योंकि यह सभी रोगों का नाश करने वाली तथा सर्व सुलभ होती है।
हरड़ के गुण (Strength of Terminalia chebula)
किसी भी वस्तु की उत्तमता की पहचान उसके गुणों द्वारा होती है। जो हरड़ नवीन, चिकनी, ठोस, गोल तथा वजनदार होती है तथा पानी में डालने पर डूब जाती हो, वह उत्तम व अत्यन्त गुणकारी मानी जाती है। इस उत्तम हरड़ का तौल दोकर्ष [4 तोला] या दो बहेड़े के बराबर होना चाहिए।
हरड़ लवण को छोड़कर मधुर, अम्ल, कटु, तिक्त तथा कषाय रस वाली होती है। कषाय रस औरों की उपेक्षा अधिक होता है। हरड़, रुक्ष, उष्ण वीर्य [गर्म], भूख बढ़ाने वाली, मेधा के लिए हितकर, मधुर विपाक वाली, रसायन अर्थात् वृद्धावस्था व रोगों को दूर करने वाली, नेत्रों के लिए लाभदायक, शीघ्र पचने वाली, उम्र बढ़ाने में सहायक, शरीर में मांस आदि धातुओं को बढ़ाने वाली तथा मल को नीचे की ओर प्रेरित करने वाली होती है।
हरड़ का सेवन करने से दमा, खांसी, प्रमेह, बवासीर, खुजली व अन्य त्वचा के रोग, सूजन [शोथ] पेट के कृमि, बुखार, मलेरिया, ग्रहणी, शूल, हिचकी, उल्टी-दस्त, अफारा व गैस का बनना, मल का अवरोध, हृदय संबंधी रोग, पथरी तथा अनेक रोगों का नाश हो जाता है।
हरड़ में रहने वाले पांचों रस पृथक-पृथक रूप से तीनों दोषों को नष्ट करते हैं। मधुर, कषाय तथा तिक्त ये तीनों रस पित्त नाशक व कटु, तिक्त व कषाय रस ये तीनों कफ नाशक और अम्ल रस अकेला वायु नाशक है। हरड़ में ये रस, पृथक-पृथक स्थानों पर रहते हैं। यथा मधुर रस मिंगी में, अम्ल रस रेशों में, तिक्त रस वृन्त में, कटु रस छिलके में तथा कषाय रस गुठली में पाया जाता है।
हरड़ के चिकित्सकीय उपयोग (Uses of Terminalia chebula)
हरड़ सभी द्रव्यों में जो औषध रूप में प्रयुक्त होते हैं तथा मुख्य रूप से वनौषधीय द्रव्यों में श्रेष्ठतम औषधि द्रव्य है। चरक संहिता में चिकित्सा स्थान के रसायन अध्याय- प्रथम में हरीतकी को सर्व रोग हर तथा रसायनों में श्रेष्ठ बताया गया है। चरक संहिता में हरड़ के बाद आंवले का वर्णन मिलता है, परन्तु इन दोनों में हरड़ को ही उत्तम माना है। हालांकि आंवले के रस हरड़ के समान हैं तथा अन्य कर्म भी समान हैं, परन्तु आंवला शीत वीर्य [ठण्डा] होता है। आंवले को रसायन में तो श्रेष्ठ माना है, परन्तु रोगनाशन में श्रेष्ठ नहीं, जबकि हरीतकी रोगनाशन व रसायन दोनों में श्रेष्ठ होने के कारण, चिकित्सा में [रोगों के निवारणार्थ] श्रेष्ठ होती है।
हरड़ जिस-जिस तरीके से प्रयोग में ली जाए, उसके गुण अलग-अलग होंगे। इसे चबाकर खाया जाए, तो भूख को बढ़ाती है। सिल पर पीसकर खाने पर मल का शोधन करती है। हरड़ को उबाल कर खाने पर दस्त बन्द कर देती है। इसे भूनकर खाने पर तीनों दोषों को दूर करती है। भोजन के साथ हरड़ को खाने पर बल, बुद्धि व इन्द्रियों को बढ़ाती है तथा तीनों दोषों का शमन करती है और मल-मूत्र आदि का शोधन करती है।
भोजन के पश्चात् खाने पर अन्न-पान सम्बन्धी दोषों को व दोषज विकारों को नष्ट कर देती है। सैंधा नमक के साथ हरीतकी [हरड़] को खाने पर कफ, घी के साथ वायु, शक्कर के साथ पित्त तथा गुड़ के साथ खाने पर सभी रोगों को दूर करती है।
नीरोग रहने के लिए गुड़ के साथ हरीतकी का सेवन करना चाहिए। युक्तियुक्त और उचित पथ्या-पथ्य के साथ इसका सेवन करने से कई रोगों से छुटकारा मिलता है। आचार भाव मिश्र ने भाव प्रकाश निघण्टु में हरड़ को प्रत्येक ऋतु में अलग-अलग अनुपान के साथ खाने की सलाह दी है।
आचार्य भाव मिश्र की ‘मौलिक’ हरीतकी प्रयोग विधि [ऋतु-हरीतकी] है।
विभिन्न रोगों में हरड़ का औषध प्रयोग (Use of Terminalia chebula in Various Diseases)
हरड़ एक उत्तम मृदु विरेचक है, अतः विबन्ध होने पर हरीतकी चूर्ण को शर्करा के साथ प्रयोग करने से बिना किसी परेशानी के दस्त [विरेचन] हो जाते हैं। वमन [उल्टी- कै] होने पर हरड़ चूर्ण को मधु [शहद] के साथ चाटने से वमन नहीं होता है।
हरड़, मजीठ, गुलाब के फूल, निशोथ को समान मात्रा में लेकर चूर्ण बनाएं तथा इस चूर्ण के बराबर सनाय का चूर्ण मिलाएं। अब इस पूरे चूर्ण के बराबर मात्रा में मिश्री मिलाकर रात्रि में सोने से पूर्व प्रति-दिन 3 से 6 ग्राम की मात्रा में सेवन करने से त्वचा, उदर और रक्त विकारों में फायदा होता है।
पाण्डु [पीलिया] में सौ ताजे हरड़ों का रस तथा पचास हरड़ के कल्क को गाय के घी में सिद्ध कर सेवन करने से रोग शान्त हो जाता है अथवा हरड़ को गोमूत्र के साथ प्रयोग किया जाए, तो पाण्डु रोग नष्ट हो जाता है।
त्रिफल स्वरस के साथ प्रातः या सायंकाल मधु मिलाकर पीएं। पाण्डु रोगी यदि त्रिफला को गोमूत्र में सात दिन तक भिगोकर प्रतिदिन इस अनुपान के साथ हरड़ का चूर्ण सेवन करें तथा पचने पर गोदुग्ध पीएं तो सात दिन में रोग शान्त हो सकता है।
अर्श [बवासीर] में त्रिफला क्वाथ के साथ निशोथ चूर्ण का प्रयोग विरेचनार्थ करना हितकर है अथवा 3 ग्राम हरड़ चूर्ण को 3 ग्राम गुड़ के साथ गरम जल से पीकर भोजन करने पर अर्श रोगी का भोजन पच जाता है तथा सेवन करने पर अच्छा लाभ देता है। ग्रहणी रोग में हरड़ चूर्ण को गर्म जल के साथ लेने से रोग में फायदा होता है।
शोथ रोग में हरड़, सोंठ देवदारू के सम मात्रा में चूर्ण को गोमूत्र के साथ सेवन करने पर कफज शोथ शान्त होता है तथा इसी चूर्ण में सममात्रा में पुनर्नवा मिलाकर गोमूत्र के साथ पीने से त्रिदोष युक्त शोथ दूर हो जाता है। गोमूत्र के साथ केवल मात्र हरीतकी का चूर्ण भी कफज शोथ को दूर करता है।
अजीर्ण में हरड़ व मुनका सम मात्रा में पीसकर उसमें दुगुनी शक्कर मिलाकर रात्रि में सोने से पूर्व जल से लेने पर अजीर्ण में फायदा होता है।